हलमा चैरिटी भाव से नहीं होता वह कर्तव्य भाव से होता है इसलिए हलमा में सम्मिलित होना ‘धर्म’ है।

श्री महेश शर्मा

हथिपावा पहाड़ी पर वनवासियों के द्वारा हलमा करके बनाये जा रहे कंटूर ट्रेंच

जल, जंगल, जमीन, जानवर का संवर्धन करना धर्म है और इनका (जल, जंगल, जमीन और जानवरों) शोषण करना अधर्म है। अधर्म अकरणीय है और धर्म करणीय है।
प्रकृति को सहेजना पूजा है। प्रकृति को नष्ट करना शोषण है।

किसी महापुरुषों की लोक कल्याणकारी बातें मानना उनकी पूजा है और उस महापुरुष का गुणगान करना आरती है। पूजा के बाद आरती होती है केवल आरती करना निषिद्ध कर्म है।
राम कृष्ण, बुद्ध महावीर को मानना पूजा है और उनका गुणगान करना आरती है। महापुषों के जीवन के श्रेष्ठ कर्मों का अनुकरण करना उनकी पूजा करना है।

प्रकृति सबको देती है, नदी जल देती है, वृक्ष छाया और फल देते हैं, धरती सब कुछ देती है, सूर्य प्रकाश देता है जानवर तो पूरा जीवन ही दे देते हैं। प्रकति के इस देने के गुण का अनुकरण करना अर्थात प्रकृति का संवर्धन करना धर्म है, यही प्रकृति की पूजा है।
वनवासी प्रकृति पूजक हैं अर्थात वह धार्मिक हैं।
हलमा के रूप में वनवासियों में परमार्थ की महान परम्परा आज भी चल रही है। भटके हुओं को राह दिखाने का काम वनवासियों ने किया है। वनवासी भीलों की अनेक महान परम्परायें हैं उनमें से हिल-मिलकर काम करने की परम्परा हलमा है।

हलमा चैरिटी भाव से नहीं होता वह कर्तव्य भाव से होता है इसलिए हलमा में सम्मिलित होना ‘धर्म’ है। अपने हित की क्रियायें कर्म हैं और दूसरों के हित की क्रियायें धर्म हैं। प्रकृति की रक्षा करना और उसका संवर्धन करना धर्म है। मनुष्य में दूसरों के हितों को संवर्धन करने की शक्ति है, यह शक्ति जानवरों में नहीं होती। जानवर, पशु-पक्षी न तो विद्यालय खोल सकते हैं न अस्पताल चला सकते हैं, वह तालाब भी नहीं बना सकते और न ही जंगल लगा सकते हैं। मनुष्य ही है जो दूसरो के दुखों को मिटाने के लिए तन-मन-धन से काम कर सकता है।

जल संग्रह के लिए 72 करोड़ लीटर क्षमता का तालाब – साढ़ गाँव में वनवासियों द्वारा हलमा करके बनाया गया

हलमा में जल संग्रह के लिए किये गये प्रयासों से ऐसे लाखों जीवों को बचाया है जो जल के अभाव में अपना वंश ही नहीं बचा पा रहे थे। ऐसे उन लाखों जीव योनियों को पानी पिला कर, पेड़ लगाकर संवर्धन करने के लिए हलमा हुआ है।
हलमा में आनेवाले पुरुष, महिला, बच्चों की भावना को जानना-समझना भी आसान नहीं है। हलमा जैसे उपक्रम में शामिल होने से मनुष्य के मनुष्य होने की सार्थकता होती है। अपना ही सोचना और अपने लिए ही करना कर्म है और सृष्टि के मनुष्यों के साथ दूसरों जीवों के संवर्धन के लिए काम करना धर्म है।
मंदिरों में दया करुणा के भाव सिखाये जाते हैं वैसे ही हलमा में आने के पहले परमार्थ के भाव सीखे जाते हैं।

मंदिर चैरिटी करना सिखाते हैं और हलमा धर्म करना सिखाता है।
चैरिटी के काम सदाचार की श्रेणी के काम हैं पर धर्म जल, जंगल, जमीन, जानवर के संवर्धन कर्तव्यबोध उत्पन्न होने का काम है।
कर्तव्य बोध माता पिता में होता है और नाते रिश्तेदारों में चैरिटी भाव। कर्तव्यबोध से बच्चों का संवर्धन होता है और चैरिटी से गिफ्ट देना या आंशिक सहायता या प्रोत्साहन होता है।
जल, जंगल, जमीन, जानवरों का संवर्धन के लिए धार्मिक होना अनिवार्य है। चैरिटी भाव से आंशिक लालन-पालन हो सकता है पर संवर्धन के लिये धर्म करना जरूरी है। धर्म ऐसा काम है जिसके बदले कुछ भी न लिया जाये यहाँ तक कि धन्यवाद भी नहीं। धन्यवाद लेते ही कर्म चैरिटी हो जाता है।

कर्तव्य में कोताही बरतना सही नहीं माना जाता इसी लिये प्रकृति के संवर्धन में कोताही बरतना अक्षम्य अपराध है। जल, जंगल, जमीन और जनवरों का शोषण अधर्म है और इनका संवर्धन करना धर्म है।
गाँव में जल जंगल के लिए हलमा शुरू हो रहा है, गावों के हलमा में भी नगरीय लोगों को दो दिन दुकान बन्द करके जमीन पर रात गुजारकर धर्म की अनुभूति लेना चाहिए।